Tuesday, February 2, 2010

जनसत्ता को जनसत्ता ही रहने दो कोई और नाम न दो

कभी-कभी कुछ ऐसी घटनायें भी इन्सान के जीवन में घटती हैं जिससे लगता है की इन्सान के मन में ऐसे ही कोई बात या विचार नहीं आता उसका कोई न कोई पक्ष जरुर सार्थक जीवन से जुड़ा होता है।

ऐसा ही कुछ आज शाम मेरे साथ हुआ जब मेरे समाचार विक्रेता ने आज ११ नवम्बर २००९ का जनसत्ता मेरे कमरे के मुख्य गेट के नीचे बनी खुली जगह से सरकाया। उस वक़्त मै खाली तो नहीं बैठा था लेकिन मन में जनसत्ता का इंतज़ार बड़ी बेसब्री से था (यह ठीक उसी प्रकार था जैसा युवा मन अपने प्रेमी या उसके सन्देश का करता है)।
लेकिन आज यह क्या हुआ जैसे ही पत्र का आधा हिस्सा सरक कर अंदर हुआ मुझे विश्वास ही नहीं हुआ मुझे लगा आज कोई और समाचारपत्र दे रहा है , पर जब पत्र का आखिरी सिरा अंदर प्रवेश किया और पत्र के मास्टर हेड पर जनसत्ता लिखा देखा तो धक्का लगा। कुछ पल खोये रहने के बाद याद आया कि अचानक ही ५ नवम्बर कि रात को जनसत्ता के संस्थापक संपादक रहे प्रभाष जोशी जी का दिल का दौरा पड़ने से देहांत हो चुका है, और उसी दिन कई जगह यह चर्चा आम थी कि २६ साल तक जनसत्ता पत्रकारिता के जिस शिखर पर था अब उसे भले ही धीरे-धीरे ही सही पर वहां से उतरना होगा।
इस प्रक्रिया कि इतनी तेज़ शुरुआत की मुझे भी आशा नहीं थी और मुझे लगता है कि आज इस पत्र के सभी पाठकों को एक घोर निराशा से दो चार होना पड़ा होगा। आज मुख्य पृष्ठ पर यूनियन बैंक का पूर्ण पृष्ठीय विज्ञापन है। जिसे देखकर अचंभा होता है कि, धन की खातिर प्रयोग की आंड में जनसत्ता भी ऐसा कर सकता है। अब आगे भी हो सकता है कि जनसत्ता ऐसे कई प्रयोगधर्मी झटके देता रहे, क्यूंकि अब हमारे जोशी जी नहीं रहे।
जोशी जी ने पूरे जीवनकाल में पत्रकारिता को एक नया आयाम दिया और यह प्रदर्शित किया कि समाचार पत्रों में समाचार प्रमुख हैं विज्ञापन नहीं किन्तु उनके हमारे बीच से जाने के तुरन्त बाद ही जनसत्ता द्वारा ऐसा कदम उठाना बहुत ही कष्टकारक है।
सभी जानते हैं कि विज्ञापन समाचार पत्रों कि जान होते हैं,लेकिन ऐसे जीवन से क्या लाभ जो आत्म सम्मान कि बलि देकर मिला हो।
क्या जोशी जी जीवित होते तो ऐसा होता,मुझे तो नहीं लगता पर जोशी जी की आत्मा यदि कहीं होगी तो आज जनसत्ता का २६ वर्षीय ३५७ वां अंक देखकर जरुर विचलित हो गयी होगी।
अतः मेरा जनसत्ता के प्रबंधन वर्ग से निवेदन है कि "जनसत्ता को जनसत्ता ही रहने दो कोई और नाम दो "।
(यह व्यथित पंक्तियाँ मेरे द्वारा ११ नवम्बर को लिखी गयीं थी पर कुछ कारणवश इसे आपके समक्ष प्रस्तुत नहीं कर सका इसके लिए क्षमा कीजियेगा,हो सकता है मेरी बातें कुछ लोगों को अच्छी न लगे तो मै यहाँ कहना चाहूँगा कि यह मेरी व्यक्तिगत राय है पर भी अगर बुरी लगे तो क्षमा कीजियेगा)